चप्पलमार होली भी खेलते, यूं तो हाेली की पहचान रंगोत्सव से है। पूरी दुनिया में होली की पहचान रंग भरी पिचकारियों से होती है, लेकिन ब्रज का एक गांव ऐसा भी है जहां चप्पल मार होली खेली जाती है। बताते हैं आपको। ब्रज में ही होली की एक अनोखी परंपरा है। ये है चप्पल मार होली। मथुरा के सौंख क्षेत्र के बछगांव में कई दशक से इस परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है। चप्पलमार होली भी खेलते, परंपरा क्यों पड़ी, इसके पीछे ग्रामीणों के अपने-अपने तर्क हैं। धुलेंडी के दिन सुबह करीब 11 बजे ग्रामीण एक-दूसरे को गुलाल का टीका करते हैं। इसके बाद छोटे-बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं। फिर हमउम्र एक-दूसरे को चप्पल मारते हैं। खास बात ये है कि चप्पल मारने को लेकर अभी तक कोई विवाद नहीं हुआ है।
करीब 20 हजार की आबादी वाले बछगांव में ये परंपरा कब से और क्यों पड़ी, इसके लिए अधिकांश बुजुर्गो का कहना है कि वह बचपन से धुलेंडी के दिन चप्पल मार होली देखते आ रहे हैं। बुजुर्ग लक्ष्मन बताते हैं कि हमारे बुजुर्ग बताते थे कि चप्पल मार होली की परंपरा बलदाऊ और कृष्ण की होली से पड़ी। होली पर कृष्ण को बलदाऊ ने प्यार में पहनी मार दी थी। इसी परंपरा को धुलेंडी के दिन बछगांव निभाता है। पहनी के बारे में दंडी स्वामी रामदेवानंद सरस्वती महाराज बताते हैं कि बलदाऊ और कृष्ण घास और पत्तों से बनी पहनी पैर में धारण करते थे। ग्रामीण योगेश का कहना है कि बुजुर्गों ने बताया था कि गांव के बाहर ब्रजदास महाराज का मंदिर है। पहले महाराज वहां रहते थे। होली के दिन गांव के किरोड़ी और चिरंजी लाल वहां गए। महाराज की खड़ाऊ अपने सिर पर रख ली, उसके बाद उनकी तरक्की हुई। चप्पलमार होली की परंपरा यहीं से पड़ी। ग्राम प्रधान मंजू चौधरी के मुताबिक प्राचीन समय से चप्पलमार होली का आयोजन हो रहा है। इस होली में ग्रामीण प्रेमभाव से सहभागी होते हैं। इसकी परंपरा कहां से और कैसे शुरू हुई। इसकी सटीक जानकारी नहीं है। @Back To Home